गलतियां हमें स्वयं को सुधारने का अवसर प्रदान करती है। इन्हें टाला नहीं जा सकता, इन पर नियंत्रण किया जा सकता है। बात सन 1955 की है प्रो. सारभाई धुंबा के दौरे पर आए। उनको नोज-कॉन जेटेसनिंग मैकेनिज्य (रॉकेट के आपभाग को शेष आाचे से नियंत्रि विसमोट करके अलग करने को प्रणाली) का संचालन करके दिखाया जाना था। हमने प्रो. साराभाई से अनयोध किया कि वे औपचारिक रूप से इस तापीय प्रणाल्ती को टाइमर के माध्यम से शुरू करें। प्रो. साराभाई मुस्कुराए और कटन दया दिया लेकिन शुरू नहीं हुई। हम सब अवाक रह गए। मैने प्रनोद काले की वरफ देखा, जिसने टडमर, सरकिट को डिजाइन किया था। इस सब इ असफलता के कारणों का विश्लेषण करने में लग गए किर हमने टनर ुक्ति को हटाकर तापोय प्रणालो को सोधे हो सकिट से जोड़ दिया।
प्रो. साराभाई ने दोबारा कटन दबाया और तापीच प्रणाली शुरू हो गई। साराधाई ने हमें बधाई दे। इस्के चात प्रो. साराभाई के सचिव ने मुझे फोन कर रात के खाने के बाद उनसे मिल लेने को कह मैं थोड़ा घकायाः साराभाई ने मुझे गर्मजोशी के साथ दधाई दी। उसके बाद के उस घहना पर आए, जो उस दिन रुवह घाटेल हुई थी। प्रो. साराभाई ने मुझ्से पूजछ कि क्या हम ऐसा काम करने में अनुललाहित होते हैं, जिसनें कोई चुनौसी नहीं हो। अत में अह मुख्य ডिषर आए- इमारे पास रोकेट प्रणाल्ियों उथा रकेट के लिपिन चणों को रक अह ज्ययस्थित करने के लिए कोई कं नहीं है। विधुल एवं यांज्िकी के क्षेत्र से संबोंधर महावपुर्ण कर्य हो रहे हैं, समेकिन सम्य और काल के रोदभ में ये फनों एक-स्रे से भिन्न हैं। इसके बाद प्रो. सलाराभाई ने रोकेट इंजोन्यिसिि सेक्सन बनाने का फैसला लिख्था। इसल, गन्यां हो हमें स्वय को सुधारने का अवस्र प्रकान करते है। जो साराभाई हफेशा यह मानने कि इन्हें ला हीं जा स्कल इ एर नि किया रकता है, सुधारा जा रूकसा है।
एपीजे अष्दुत कलाम
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